कहानी: अपराधिनी
मेरे अंतर्मन में ढेरों प्रश्न उमड़घुमड़ रहे थे. मैं उस से मिलने को बेताब हो उठी. पर न पता, न ठिकाना. कहां खोजूं उसे? यही सब सोचतेसोचते 4 दिन बीत गए.
पुरानी यादों के पन्ने समेटे आज बरस बीत गए, फिर भी उस तसवीर को देखते ही पता नहीं क्यों मेरा मन अतीत में लौट जाता है. जब से शैली को टीवी पर देखा है, उस से मिलने की चाहत और भी बलवती हो गई. वह कैसे समाजसेविका बन गई? उसे क्या जरूरत थी यह सब करने की? उस का पति तो उसी की भांति समझदार ही नहीं, बल्कि कार की एक बड़ी कंपनी का मालिक भी था. ऐसे में वह इस क्षेत्र में कैसे आ गई?
मेरे अंतर्मन में ढेरों प्रश्न उमड़घुमड़ रहे थे. मैं उस से मिलने को बेताब हो उठी. पर न पता, न ठिकाना. कहां खोजूं उसे? यही सब सोचतेसोचते 4 दिन बीत गए. और फिर मेरे घर की चौखट पर जब मेरी प्रिय पत्रिका ने दस्तक दी तो उस में छपी उस की समाजसेवा की कुछ विशेष जानकारी से उस की संस्था का पता चला. उसी से उस का फोन नंबर मालूम हुआ. मेरी खुशी का ठिकाना न रहा.
मैं ने फोन लगाया. वही चिरपरिचित मधुर आवाज में वह ‘‘हैलो, हैलो…’’ बोले जा रही थी. और मेरे शब्द मुख के बजाय आंखों से झर रहे थे. मुझ से कुछ भी कहते नहीं बन रहा था. आखिर अपमान भी तो मैं ने ही किया था उस का. अब कैसे अपने किए की माफी मांगूं? फोन कट गया. मैं ने फिर मिलाया. अब भी बात करने की हिम्मत मैं नहीं कर पाई.
अब की बार वहीं से फोन आया. मैं ने घबराते हुए फोन उठाया. आवाज आई, ‘‘हैलो जी, कौन? लगता है आप तक मेरी आवाज नहीं पहुंच पा रही है.’’ उस का इतना कहना भर था कि मैं एकाएक बोल उठी, ‘‘शैली.’’
‘‘हांहां, मैं शैली ही हूं. आप कौन हैं?’’
‘‘मैं, मैं, प्रिया, तुम्हारी बचपन की सहेली.’’
वह चौंकी, ‘‘प्रिया, तुम, मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा कि मैं अभी भी तुम्हें याद हूं.’’
‘‘प्लीज शैली, मुझे माफ कर दो. उस दिन मैं ने तुम्हारा बहुत दिल दुखाया. सच मानो तो आज तक अपनेआप से नजरें मिलाते हुए आत्मग्लानि होती है. उस दिन के बाद से कितना तड़पी हूं तुम से माफी मांगने के लिए,’’ मैं लगातार बोले जा रही थी.
वह थोड़ा रोब में बोली, ‘‘बस, बहुत हुआ. और हां, तुम किस बात की माफी मांग रही हो? माफी तो मुझे मांगनी चाहिए. मैं ने तुम्हारे सपनों को तोड़ा. अगर तुम सचमुच मुझ से नाराज नहीं हो, तो मैं हैदराबाद में हूं. क्या तुम मुझ से मिलने आओगी? अपना पता मैं मोबाइल पर अभी मैसेज किए देती हूं. और प्रिया, तुम कहां हो?’’
‘‘मैं यहीं दिल्ली में ही हूं. आज तो तुम से बात करने से भी ज्यादा खुशी की बात यह है कि अगले महीने ही मेरे पति की औफिस की मीटिंग हैदराबाद में ही है. अब की बार मैं भी उन के साथ ही आऊंगी,’’ मैं ने कहा.
हम दोनों ही खुशी से खिलखिला उठे व जल्द ही एकदूसरे से मिलने की चाहत लिए अपनीअपनी जिंदगी में व्यस्त हो गए.
शशांक के औफिस से लौटते ही मैं ने उन के आगे अपनी बात रख दी, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया. वैसे भी याशिका और देव तो होस्टल में हैं. याशिका का इसी वर्ष आईआईटी में चयन हो गया है. वह कानपुर में है. और देव कोटा में अपने मैडिकल प्रवेश टैस्ट की तैयारी में व्यस्त है.
अब शैली से मिलने की मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी. यों लगने लगा मानो दुख व नफरत के काले मेघ छंट गए और खुशियों की छांव फिर से हमारे दिलों पर दस्तक देने को तैयार है. शायद आंसू और खुशी के इस सामंजस्य का नाम ही जिंदगी है.
अब तो मेरा पूरा ध्यान ही शैली पर केंद्रित होने लगा. फिर फोन मिलाया. यह जानने के लिए कि उस के पति कैसे हैं, बच्चे कितने हैं, कितने बड़े हो गए.
पर शैली ने फोन पर कुछ भी बताने से मना कर दिया. मात्र इतना कहा, ‘‘अभी इसे राज ही रहने दो. मिलने पर सब बताऊंगी.’’
अपनी कल्पना में खोई मैं 2 बच्चों के हिसाब से उन के लिए कुछ उपहार आदि खरीद लाई.
अगले दिन शशांक के औफिस जाने के बाद मैं ने अपना पुराना वह अलबम निकाला जो शादी के समय दादी ने मेरे कपड़ों के साथ रख दिया था. इस में शैली और मेरी बचपन की कई तसवीरें थीं. उन्हें देखते ही मुझे वर्षों पुराने उन रंगों की स्मृति हो आई जो कभी मेरे जीवन में गहरे थे व कभी उन रंगों की चमक फीकी पड़ गई थी. उन यादों के अलगअलग रूप मेरे सामने चलचित्र की भांति आते जा रहे थे.
कितना प्यारा था वह बचपन, जो कभी तो मां की साड़ी के आंचल में छिप जाता था और कभी झांकने लगता था दादी की प्रेरणादायक कहानियों के माध्यम से.
शैली और प्रिया की जोड़ी पूरे स्कूल में मशहूर थी. हमारे तमाम रिश्तों में हमारी दोस्ती का रिश्ता ही इतना प्रगाढ़ और अनमोल था कि स्कूल में, चाहे अध्यापिका हो अथवा सहेलियां, हम दोनों का नाम जोड़ कर ही बोला जाता था -शैलप्रिया.
शैली, जितनी बाहर से खूबसूरत सी, उस से कहीं अधिक वह दिल से भी सौंदर्य की धनी थी. हमारा बचपन ढेर सारे अनुभवों और किस्सों से भरा था. वह अपने मातापिता की इकलौती लाड़ली थी और मेरे दोनों छोटे भाइयों को वह राखी बांधती थी.
हमारा घर भी पासपास ही था. उस के पापा यहीं दिल्ली में ही किसी गैरसरकारी कंपनी में कार्यरत थे व उस की मां गृहिणी थीं, जबकि मेरे पापा का अपना कारोबार था और मम्मी अध्यापिका थीं. कालेज में भी हमारे विषय समान थे और कालेज भी हम दोनों का एक ही था. हम ने बीए किया था. उस के बाद हमारी दोस्ती पर पता नहीं किस की बुरी नजर लग गई जो हम एकदूसरे से 20 सालों से जुदा हैं. सोचतेसोचते ही मेरी आंखें नम हो आईं, फिर भी विचारों की झड़ी दिलोदिमाग में गोते खाती रही.
कुदरत व समय का हमारे जीवन से गहरा नाता है. हम तो इस मायावी दुनिया में मात्र माध्यम बनते हैं. जबकि कुदरत बड़ी करामाती है जो किस का समय, किस का काम, कहां, कैसे बांट दे, कोई नहीं जानता. फिर भी हम बुनते हैं सपनों के महल.
उस दिन भी जिंदगी ने एक रास्ता तय किया था जिस की सुखद फूलोंभरी राह पर मैं ने चलने के सपने देखे. लेकिन कुदरत ने उस दिन मेरा समय यों पलट दिया मानो मेरे अहं पर किसी ने भयानक प्रहार किया हो.
बचपन से हमारे यहां आतीजाती रही है. हम उसे अच्छी तरह जानतेसमझते हैं. फिर क्यों नहीं सोचते कि वह स्वार्थी नहीं है.
मेरे लिए कार कंपनी के मालिक, बेहद आकर्षक रोहित का रिश्ता आया. वे मुझे देखने आ रहे थे. मेरी मां, दादी और चाची तो थीं ही मेहमानों की खातिरदारी हेतु, परंतु मैं ने शैली और उस की मां को भी बुलवा लिया. सभी ने मिल कर बहुत अच्छी रसोई बनाई. देखनेदिखाने की रस्म, खानापीना सब अच्छे से संपन्न हो गया. अगले सप्ताह तक जवाब देने को कह कर लड़के वाले विदा ले चले गए.
मधुर पवन की बयार, बादलों की लुकाछिपी, वर्षा की बूंदें, प्रकृति की छुअन के हर नजारे में मुझे अपने साकार होते स्वप्नों की राहत का एहसास होता. लेकिन उस दिन मानो मुझ पर वज्रपात हो गया जब रोहित ने मेरे स्थान पर शैली को पसंद कर लिया. वादे के अनुसार, एक सप्ताह बाद रोहित के मामा ने हमारे यहां आ कर शैली का रिश्ता मांग लिया.
एक बार तो हम सभी हैरान रह गए और परेशान भी हुए. बस, एक मेरी अनुभवी दादी ने सब भांप लिया कि यहां बीच राह में समय खड़ा है. मेरी मां का तो यह हाल था कि वे मुझे ही डांटने लगीं कि तुम ने ही शैली को बुलाया था न, अब भुगतो. पर मेरी दादी रोहित के मामाजी को शैली के घर ले कर गईं. उन्हें समझाया. दादी शैली की शादी से भी खुश थीं.
तनाव दोनों घरों में था. मेरे तो सपने टूट गए. इतना अच्छा रिश्ता शैली की झोली में जाने से मेरी मां का स्वार्थ जाग उठा. वे शैली व उस की मां को भलाबुरा कहने लगीं और मैं ने अपनेआप को एकांत के हवाले कर दिया.
इस घटना से मेरे अंदर न जाने क्या दरक गया कि मेरे जीवन का सुकून खो गया और मेरी मित्रता मेरे अविश्वास की रेत बन कर मेरे हाथों से यों ढह गई मानो हमारी दोस्ती एक छलावा मात्र हो जिसे किसी स्वार्थ के लिए ही ओढ़ा हो.
उधर, शैली नहीं चाहती थी कि हमारी दोस्ती इस रिश्ते की वजह से समाप्त हो. मेरी दादी ने इस बीच पुल का काम किया. उन्होंने पापा को समझाया, ‘शैली भी हमारी ही बेटी है. बचपन से हमारे यहां आतीजाती रही है. हम उसे अच्छी तरह जानतेसमझते हैं. फिर क्यों नहीं सोचते कि वह स्वार्थी नहीं है. वह हमारी प्रिया के मुकाबले ज्यादा सूबसूरत है, गुणी भी है. क्या हुआ जो रोहित ने उसे पसंद कर लिया. अरे, अपनी प्रिया के लिए रिश्तों की कमी थोड़े ही है.’
पापा दादी की बात से सहमत हो गए. मैं दादी की वजह से इस शादी में बेमन से शरीक हुई थी. विदाई के समय शैली मेरे गले लग कर इस कदर रोई मानो वह मुझ से आखिरी विदाई ले रही हो.
शैली की शादी के बाद उस की मां से मैं ने बोलना छोड़ दिया. लगभग 2 महीने बाद शैली मायके आई. वह मुझ से मिलने आई. मेरी दादी ने उसे बहुत लाड़ किया. पर मैं ने और मेरी मां ने उस के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया. मेरी मां तो उसे अनदेखा कर बाजार चली गईं और मैं ने उस का हालचाल पूछने के बजाय उस से गुस्से में कह दिया, ‘अब तो खुश हो न मुझे रुला कर. मेरे हिस्से की खुशियां छीनी हैं तुम ने. तुम कभी सुख से नहीं रह पाओगी.’
वह रोती हुई बाहर निकल गई और उस के बाद मुझ से कभी नहीं मिली. इस तरह की भाषा बोलना हमारे संस्कारों में नहीं था. और फिर, वह तो मेरी जान थी. फिर भी, पता नहीं कैसे मैं उस के साथ ऐसा व्यवहार कर गई जिस का मुझे उस वक्त कोई पछतावा नहीं था.
दादी को मेरा इस तरह बोलना बहुत बुरा लगा. उन्होंने मुझे बहुत डांटा और उसे मनाने के लिए कहा. पर मैं अपनी जिद पर अड़ी थी. मुझे अपने किए का पछतावा तब हुआ जब शैली का परिवार दिल्ली को ही अलविदा कह कर न जाने कहां बस गया.
वक्त बहुत बड़ा मरहम भी होता है और सबक भी सिखाता है. वह तो निर्बाध गति से चलता रहता है और हर किसी को अपने हिसाब से तोहफे बांटता रहता है. मुझे भी शशांक के रूप में वक्त ने ऐसा तोहफा दिया जो मेरे हर वजूद पर खरा उतरा. इन 19 वर्षों में उन्होंने मुझे शिकायत का कोई अवसर नहीं दिया. मोटर पार्ट्स की कंपनी में मैनेजर के पद पर विराजित शशांक ने बच्चों को भी अच्छी शिक्षा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. अच्छे से अच्छे विद्यालय में पढ़ाना और घर पर भी हम सभी को हमेशा भरपूर समय दिया है उन्होंने.
वक्त के साथ मैं बहुतकुछ भूल चुकी थी. पर आज शैली के साथसाथ दादी भी बहुत याद आने लगीं. सही कहती थीं दादी, ‘बेटा, कभी ऐसा कोई काम मत करो कि तुम अपनी ही नजरों में गिर जाओ.’ आज मेरा मन बहुत बेचैन था. मैं शैली से मिल अर अपने किए की माफी मांगना चाहती थी. मेरे व्यवहार ने उसे उस समय कितना आहत किया होगा, इसे मैं अब समझ रही थी. यादों के समंदर में गोते खाते वह समय भी नजदीक आ गया जब हमें उस से मिलने जाना था.
हैदराबाद की राहों पर कदम रखते ही मेरे दिल की धड़कनें तेज हो गईं. अपनेआप में शर्मिंदगी का भाव लिए बस यही सोचती रही कि कैसे उस का सामना कर पाऊंगी. हमारी आपसी कहानी से शशांक अनभिज्ञ थे. एक बार तो मैं शैली से अकेले ही मिलना चाहती थी. सो, मैं ने शशांक से कहा, ‘‘आप अपने औफिस की मीटिंग में चले जाइए, मैं टैक्सी ले लूंगी, शैली से मिल आऊंगी.’’ उन्हें मेरा सुझाव ठीक लगा.
अब मैं बिना किसी पूर्व सूचना के शैली के बताए पते पर पहुंच गई. उसी ने दरवाजा खोला. उस का शृंगारविहीन सूना चेहरा देख कर मेरा दिल बैठने लगा. हम दोनों ही गले लग कर जीभर रोए मानो आंसुओं से मैं अपने किए का पश्चात्ताप कर रही थी और वह उस पीड़ा को नयनों से बाहर कर रही थी जिस से मैं अब तक अनजान थी. मैं उस के घर में इधरउधर झांकने लगी कि बच्चे वगैरह हैं या नहीं, मैं पूछ ही बैठी, ‘‘रोहितजी कहां हैं? कैसे हैं? और बच्चे…?’’
मेरा कहना भर था कि उस की आंखें फिर भीग गईं. अब शैली ने बीते 20 वर्षों से, दामन में समाए धूपछांव के टुकड़ों को शब्दों में कुछ यों बयां किया, ‘‘रोहित से मेरा विवाह होने के 4 माह बाद ही एक सड़क दुर्घटना में वे हमें रोता छोड़ कर हमेशा के लिए हम से बिछुड़ गए. सुसराल वालों ने इस का दोष मेरे सिर पर मढ़ा.
पापा अपने पैतृक गांव चले गए. वहीं चाचाजी, ताऊजी के परिवार के साथ उन का वक्त भी आसानी से कट जाता है और मुझे खुश देख कर उन्हें संतुष्टि भी होती है.
‘‘उन्होंने मुझे घर में रखने से इनकार कर दिया. मैं मायके आ गई. मेरा दुख मां से सहन नहीं हुआ और वे बीमार पड़ गईं व 2 माह के भीतर ही वे भी मुझे छोड़ गईं.
‘‘पापा के किसी मित्र ने मेरे लिए दूसरा रिश्ता खोजा. पर मुझ में अब समय से लड़ने की और ताकत न थी. मैं ने दूसरे विवाह से मना कर दिया. पापा भी मेरी तरफ से परेशान रहने लगे. सो, मैं ने खुद को व्यस्त रखना शुरू किया. पहलेपहल तो मैं किताबों में उलझी रहती थी, उन्हें ही पढ़ती थी. फिर एक दिन किसी ने मुझे समाजसेवी संस्था से जुड़ने का सुझाव दिया. मुझे यह बहुत पसंद आया. अगले ही दिन मैं उस संस्था से जुड़ गई और मेरे जीवन को एक नई दिशा मिल गई. पापा अपने पैतृक गांव चले गए. वहीं चाचाजी, ताऊजी के परिवार के साथ उन का वक्त भी आसानी से कट जाता है और मुझे खुश देख कर उन्हें संतुष्टि भी होती है,’’ यह कह कर वह मुसकरा दी.
अब मेरे नयन बरसने लगे. मैं ने अपने हाथ जोड़ उस से क्षमा मांगी अपने उन शब्दों के लिए जो मैं ने 20 वर्षों पहले गुस्से में उस से कहे थे. पर वह तो मानो विनम्रता, सहनशीलता और प्रेम की साक्षात रूप थी. मुझे गले से लगा कर बोली, ‘‘याद है तुम्हें, दादी ने क्या कहा था? सब समय से मिलता है. मेरा समय मुझे मिल गया. जो हुआ, अच्छा हुआ. अब तो मेरी अपनी पहचान है.’’ वह फिर मुसकरा दी.
मेरी आंखें पोंछ कर उस ने मुझे पानी पिलाया और बड़ी ही फुरती से उठी. दौड़ कर मेरे मनपसंद समोसे ले कर आई, ‘‘इन्हें खाओ, मैं ने खुद बनाए हैं,’’ कह कर प्लेट मेरे हाथ में दी. फिर हंसते हुए बोली, ‘‘आया न मां के हाथ के बने समोसे वाला स्वाद. उन्हीं से सीखे थे मैं ने.’’ मेरी आंखें फिर बरसने लगीं. माहौल को खुशनुमा बनाने के लिए वह जोर से हंसी और बोली, ‘‘अरे यार, इतनी मिर्च तो नहीं है इस में जो तुम्हारी आंखों में पानी आ रहा है.’’ कह कर उस ने बर्फी का एक बड़ा टुकड़ा मेरे मुंह में ठूंस दिया और मैं खिलखिला कर हंस पड़ी.
बहुत देर तक हम बातें करते रहे. इस बीच, उस की संस्था से उस के पास कई फोन आए. सभी प्रश्नों के वह संतोषजनक उत्तर देती और फिर हम वापस पुरानी यादों में खो जाते.
वहां से वापस लौटते समय बड़े ही भय के साथ मैं ने वो उपहार उसे देने चाहे, पर साहस ही नहीं जुटा पा रही थी. शायद उस ने मेरा मन पढ़ लिया था, तभी वह चहक कर बोली, ‘‘तुम इतने सालों में मिली हो, मेरे लिए कोई तोहफा तो जरूर लाई होगी. इसे दो न मुझे.’’ बच्चों की तरह मुझे झकझोर कर कहने लगी, ‘‘तुम से तोहफा लिए बिना तो तुम्हें यहां से जाने ही नहीं दूंगी,’’ वह फिर मुसकराई.
अब मैं ने उस की बात मानते हुए उन उपहारों को उसे भेंट किया. मेरे नयन अभी भी सजल थे. उपहार लेते समय वह खुशी से मानो उछल पड़ी हो. ‘‘मेरे तो बहुत सारे बच्चे हैं. ये उपहार पा कर वे बहुत खुश होेंगे. इसे तो मैं ड्राइंगरूम में सजाऊंगी,’’ ऐसा कह कर उस ने मेरा और मेरे लाए हुए उपहारों का बहुत मान रखा.
यों ही सुकून का एहसास दिलाती, सधी हुई बातों से, वर्तमान लमहों को पूरे मन से जीने का कौशल सिखलाती, उत्साह से भरपूर वह मुझे बाहर तक विदा करने आई इस वादे के साथ कि कल रविवार को शशांक के साथ फिर मिलने आना है.
मैं वहां से चल दी. गाड़ी में बैठे पूरे रास्ते मेरे मन में एक अजीब सी उलझन हिचकोले खाती रही. अपनी जिंदगी, अपने सपने, मात्र अपना ही भला चाहने के स्वार्थ में मैं ने उस बेकुसूर को न जाने क्याक्या कह दिया था. फिर भी, उस के नयनों में स्नेह, हृदय में प्यार और अपनापन देख कर मैं स्वयं को बहुत बड़ी अपराधिन महसूस कर रही थी.
दादी की जिस सीख को मैं ने अपनाना तो दूर, कभी उसे तवज्जुह भी नहीं दी, आज फिर याद आई. वही दादी, जो कहती थीं, ‘सबकुछ नियति तय करती है. हम सभी उस नियति के मोहरे मात्र हैं. कभी भी किसी से आहत करने वाले शब्द मत बोलो कि उस के घाव कभी भर न पाएं और वे नासूर बन जाएं.’
अब लगता है शायद नियति ने ही ऐसा तय कर रखा था कि मेरे स्थान पर शैली आ गई. उस ने भी मित्रता का क्या खूब फर्ज निभाया, मेरे जीवन में आने वाले बुरे समय को उस ने सहर्ष स्वीकार कर लिया. वह भले ही सबकुछ भुला कर मुझे माफ कर दे, पर मैं अपनी ही नजरों में ताउम्र उस की अपराधिनी रहूंगी.