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कहानी: का से कहूं "क्यों दोनों सहेलियां टूट कर बिखर गईं"

हालात और मजबूरी कभीकभी इंसान को इतना विवश कर देते हैं कि अपने दुख पर वह जी भर कर रो भी नहीं पाता. सुकन्या भी इसी स्थिति में थी.
कहने को तो मैं बाजार से घर आ गई थी पर लग रहा है मेरी खाली देह ही वापस लौटी है, मन तो जैसे वहीं बाजार से मेरी बचपन की सखी सुकन्या के साथ चला गया था. शायद उस का संबल बनने के लिए. आज पूरे 3 वर्ष बाद मिली सुकन्या, होंठों पर वही सदाबहार मुसकान लिए. यही तो उस की विशेषता है, अपनी हर परेशानी, हर तकलीफ को अपनी मुसकराहट में वह इतनी आसानी, इतनी सफाई से छिपा लेती है कि सामने वाले को धोखा हो जाता है कि इस लड़की को किसी तरह का कोई गम है.

‘‘अरे भाई, आज जादू की सब्जी बना रही हो,’’ विवेक, मेरे पति, के टोकते ही मैं यथार्थ के धरातल पर आ गई. अब मुझे ध्यान आया कि मैं खाली कुकर में कलछी चला रही हूं. वे शायद पानी पीने के लिए रसोई में आए थे.

‘‘क्या बात है विनि, परेशान हो?’’ इन्होंने पूछा, ‘‘आओ, बैठ कर बातें करते हैं.’’

‘‘पर खाना,’’ मेरे यह कहते ही ये बोले, ‘‘तुम्हें भी पता है, मन में इतनी हलचल ले कर तुम ठीक से खाना बना नहीं पाओगी और मैं शक्कर वाली सब्जी खा नहीं पाऊंगा.’’

मैं अपलक विवेक का चेहरा देखती रही जो मुझे, मुझ से भी ज्यादा समझते हैं.

आज एक बार फिर प्रकृति को कोटिकोटि धन्यवाद देने को मन कर रहा है कि उस ने मुझे इतना समझने वाला पति दिया है.

‘‘फिर से खो गईं,’’ विवेक ने मेरे चेहरे के सामने चुटकी बजाते हुए कहा, ‘‘आने दो सासूमां को, उन से पूछूंगा कि कहीं आप अपनी यह बेटी कुंभ के मेले से तो नहीं लाई थीं. बारबार खो जाती है,’’ फिर इन्होंने मुझे सोफे पर बैठाते हुए कहा, ‘‘अब बताओ, क्या बात है?’’

‘‘आप को सुकन्या याद है?’’

‘‘कौन, वह शरारती लड़की जिस ने हमारे विवाह में मेरे दोस्तों को सब से ज्यादा छकाया था? क्या हुआ उसे?’’ इन्होंने पूछा.

‘‘आज बाजार में मिली थी. पता है, कालेज में हम 3 सखियों की आपस में बहुत घनिष्ठता थी. मैं, पारुल और सुकन्या. हम तीनों के विचार, व्यवहार तथा पारिवारिक स्थितियां एकदूसरे से एकदम अलग थीं. हम तीनों ने एक ही कालेज में ऐडमिशन लिया था. पारुल के पिताजी शहर के जानेमाने लोहे के व्यापारी थे. घर में धनदौलत की नदी बहती थी. पापा भी सरकारी महकमे में थे. हम पर दौलत की बरसात तो नहीं थी, पर कोई कमी भी नहीं थी. इस के विपरीत पितृविहीन सुकन्या के घर का खर्च मुश्किल से तब पूरा होता था जब वह और उस की मां सारा दिन सिलाई करती थीं. इन सब के बावजूद मैं ने कभी भी उस के माथे पर परेशानी की एक शिकन नहीं देखी थी.

‘‘शायद हमारी आर्थिक स्थिति जैसा ही हमारा स्वभाव था. नाजों में पली पारुल जरा सी तकलीफ में घबरा जाती थी तो दूसरी तरफ सुकन्या बड़ी से बड़ी परेशानी भी बिना उफ किए झेल जाती थी और बची मैं, जिस के लिए सुकन्या कहती थी, ‘अच्छा है कि तू मेरे और पारुल के बीच में रहती है वरना, यह पारुल तो मुझे भी अपनी तरह कमजोर बना देगी, कांच की गुडि़या.’ पारुल भी कहां चुप रहती, पलट कर जवाब मिलता, ‘हां, रहने दे मुझे कांच की गुडि़या की तरह नाजुक. मुझे नहीं बनना तेरी तरह पत्थर, सीने में दिल ही नहीं है.’ और बदले में सुकन्या यह शेर सुना कर लाजवाब कर देती थी :

‘आईने को तो बस टूट जाना है, आईना बनने से बेहतर है पत्थर बनो, तराशे जाओगे तो महान कहलाओगे.’

‘‘पर वक्त की मार देखो, मेरी दोनों सहेलियां टूट कर बिखर गईं जो पत्थर थी वह भी और जो कांच थी वह भी.’’

मेरी आंखों में रुके हुए आंसुओं का बांध टूट गया था. मैं बहुत देर तक विवेक की बांहों में सिसकती रही.

‘‘मुझे बताओ, क्या हुआ इस के बाद, तुम्हारा मन हलका हो जाएगा,’’ काफी देर की खामोशी के बाद विवेक बोले तो मैं ने सब कह दिया, ‘‘हमारा कालेज में पहला वर्ष ही था कि पारुल की सगाई हो गई शहर के ही व्यापारी के बेटे विजय से. वे दोनों रोज एकदूसरे से फोन पर घंटों बातें करते थे. वह अपनी सारी बातें हम से शेयर करती. पारुल की बातें खत्म नहीं होतीं और सुकन्या अकसर उसे चिढ़ाने के लिए कहती, ‘ओफ हो, जिस लड़की की सगाई हो गई हो उस के तो पास तो फटकना भी नहीं चाहिए.’ यह सुन कर पारुल रूठ जाती और मुझे बीचबचाव करना पड़ता था.

‘‘मुझे आज भी याद है जब पारुल के विवाह से ठीक 1 महीने पहले विजय ने शादी से मना कर दिया. परिणाम यह हुआ कि पारुल, जिस ने कभी छोटा सा दुख भी नहीं झेला था, ने उसी रात एक चिट्ठी में यह लिख कर ‘मैं विजय के बिना नहीं जी सकती हूं’ आत्महत्या कर ली.

‘‘उसी दिन सुकन्या ने मुझ से कहा था, ‘विनि, मैं शादी से पहले किसी को अपने इतने करीब नहीं आने दूंगी कि उस के दूर जाते ही मेरी जिंदगी ही मुझ से रूठ जाए.’ और अभी 2 महीने पहले ही तो उस ने मुझे फोन पर बताया था, ‘मेरी सगाई हो गई है, विनि.’ खुशी उस की आवाज से छलक रही थी. तो मैं ने भी पूछा, ‘क्या नाम है? बातेंवातें कीं?’

‘‘‘धीर नाम है उन का और हां, खूब बातें करते हैं.’

‘‘‘अच्छा जी, खूब बातें करते हैं तो आखिर पत्थर को भी बोलना आ ही गया. अब तो धीर जी से मिलना ही पड़ेगा.’ मैं ने चुटकी ली थी.

‘‘‘हां विनि, मुझे पता ही नहीं चला कब धीर ने मेरे पत्थर दिल को पिघला कर मोम बना दिया और उसे धड़कना सिखा दिया. 3 महीने बाद शादी है, तू जरूर आना.’

‘‘‘हांहां, जरूर आऊंगी,’ मैं ने कह दिया.

‘‘आज बाजार में मिली, होंठों पर वही सदाबहार मुसकान. मैं ने पूछा, ‘कहां जा रही है धूप में? शादी को 1 महीने से कम समय रह गया है. इतनी धूप में घूमेगी तो काली हो जाएगी.’

‘‘‘अरे, तुझे तो पता ही है पार्लर खोला है. उसी का सामान लेने जा रही हूं.’ वह जैसे मुझ से पीछा छुड़ाना चाह रही हो.

‘‘‘अरे पार्लरवार्लर छोड़, पिया के घर जाने की तैयारी कर,’ मैं ने उस का हाथ थामते हुए कहा.

‘‘तभी मेरी नजर उस की आंखों पर गई. शायद वह एक सैकंड का सौवां भाग जितना ही समय था जब उस की आंखों में दर्द की लहर गुजरी जिसे उस ने बहुत सफाई से छिपा लिया था क्योंकि अगले क्षण उस की सदाबहार मुसकराहट वापस उस के होंठों पर थी. वह मुझ से नजर नहीं मिला पा रही थी.

‘‘वह झटके से वापस जाने के लिए मुड़ी पर मैं ने उस का हाथ पकड़ लिया. ‘नहीं एक्सरे, आज नहीं,’ कह कर वह अपना हाथ छुड़ाने लगी.

‘‘‘नहीं, आज ही,’ मैं ने जिद की.

‘‘हमेशा ही ऐसा होता था. उसे जब भी मुझ से अपनी कोई परेशानी छिपानी होती थी, मुझ से नजर मिलाने से कतराती थी, कहती थी, ‘मैं अपने हंसते चेहरे की आड़ में अपना दर्द सारी दुनिया से छिपा लेती हूं पर एक्सरे, तू फिर भी सब समझ जाती है.’ और तब वह मुझे विनी न कह कर एक्सरे बुलाती. आज भी ऐसा हुआ था.

‘‘‘कल धीर के घर वाले आए थे. उन्होंने अचानक ही अपनी डिमांड बढ़ा दी. अम्मा ने मजबूरी बताते हुए हाथ जोड़े तो उन्होंने रिश्ता तोड़ दिया,’ उस ने अपना चेहरा घुमाते हुए कहा.

‘‘‘कल तेरा रिश्ता टूटा और आज तू पार्लर जा रही है,’ मुझे अपनी ही आवाज गले में फंसती हुई लग रही थी.

‘‘‘तू तो जानती है, हम दोनों बहनों ने कितनी मुश्किल से पैसे जोड़ कर यह पार्लर खोला है और अब अगर शादीविवाह के मौकों पर पार्लर बंद रखेंगे तो काम कैसे चलेगा.’

‘‘विवेक, समय की मार देखो, मेरी दोनों सहेलियों के साथ एकजैसे ही हादसे हुए. पारुल कांच की तरह टूट कर बिखर गई. उस का टूटना सब ने देखा और बिखरना भी. और दूसरी तरफ सुकन्या, वह न तो टूट सकी और न ही बिखर सकी, क्योंकि अगरवह कांच की तरह टूट कर बिखरती तो उन टूटी हुई किरचों से उस के अपने ही लहूलुहान हो जाते. घायल हो जाती उस की मांबहनें. तभी तो उस ने अपने टूटे हुए ख्वाबों को अपने दिल में ही दफन कर दिया. उस को तो दुखी हो कर शोक मनाने का अधिकार भी नहीं था. उस के ऊपर सारे घर की जिम्मेदारी जो थी.’’

विवेक ने मेरे मुख से दुखभरी कथा को सुन मुझ से अपनी सहेलियों के दर्द में शामिल होने को कहा. हालांकि अपने दिल की बात सुना कर मैं हलकी हो गई.
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