कहानी: गुलाबो की मुसकान
मुझे लग रहा था जैसे मैं अपनी भावनाओं के हाथों छली गई थी पर मजबूत इरादों वाले सर को सामने देख कर मेरे मन का कोहरा छंट गया था.
कालेज के लंचटाइम में हम सभी स्टाफ के साथ गपशप कर रहे थे कि अचानक मेरे कानों में आवाज आई, ‘मैडम, प्लीज यहां विटनैस में आप के साइन की जरूरत थी. दरअसल, मैं ने यहां पीजीटी (मैथ्स) के रूप में जौइन किया है. बैंक में अकाउंट के लिए बैंक वाले एक विटनैस मांग रहे हैं.’ मुझे उस के बोलने का लहजा, पहनावा अपनों जैसा लगा. पेपर मेरे सामने था, मैं न नहीं कर सकी. फौर्म पर हलके से नजर डाली, इंद्रेश बरेली. ‘ओह तो महाशय बरेली से हैं.’ यह बुदबुदाने के साथ साइन कर फौर्म दे दिया. सर ने थैंक्यू कहा और मुसकरा कर चले गए.
उन के मुड़ते ही एक जोरदार ठहाका लगा, ‘‘क्यों इंदु, इंद्रेशजी ने क्या राशि देख कर तुम्हारे साइन मांगे या फिर…?’’
‘‘कैसी बातें कर रहे हैं आप लोग. उन्होंने तो आगे बढ़ाया था पेपर, अब वह मैं सामने पड़ गई तो वे क्या करते या मैं क्या करती,’’ मैं ने कहा.
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‘‘तो इतनी जल्दी फेवर भी होने लगा,’’ दूसरी टीचर साथी ने कहा. टन…टन…टन तभी घंटी बज गई, हम सभी अपनेअपने क्लास में चले गए.
लेकिन मैं क्लास में जा कर भी क्लास में नहीं पहुंच सकी. गले में मफलर, पैंट, हां ये तो हमारे यहां जैसा ही है. ओह, मिट्टी, पानी और बोली में इतनी ताकत होती है कि आदमी दस की भीड़ में भी अपनों को पहचान लेता है. पर मैं तो उन्हें जानती भी नहीं. मैं ने साइन तो कर दिए हैं पर क्या? चलो, जो होगा, देखा जाएगा. मैं ने ऐसा सोच कर अपने को झटका पर विचारों की शृंखला हटने का नाम ही नहीं ले रही थी कि एक बच्चे ने कहा, ‘‘मैडम, क्लास ओवर हो गई.’’
मैं ने अपने शरीर को एक क्लास से ढकेल कर दूसरे क्लास में पहुंचा दिया. पूरा दिन इसी उधेड़बुन में निकल गया.
अगले दिन सुबह जब असेंबली के लिए सारे टीचर्स बच्चों के सामने खड़े थे, मेरी आंखें गेट पर लगी थीं. सामने से मुझे इंद्रेश सर तेजी से, कुछ शरमाए, घबराए, शांत, कुछ मुसकराते हुए आते दिखाई दिए. मैं ने कनखियों से उन्हें देखा. वे मुझ से कुछ दूरी पर आ कर खडे़ हो गए. उन्होंने मुझ से नमस्ते की तो मुझे अपने शहर की हवा चलती हुई महसूस हुई.
2-3 दिन बाद उन का अकाउंट खुल गया. वे मुझे धन्यवाद देने मेरे पास आए. तब पता चला उन के बारे में थोड़ाबहुत. मैं उस परदेश में 4 साल से रह रही थी. नौकरी के दौरान मेरे कुछ दोस्त भी बने थे पर फिर भी आज पहली बार उन सब को पीछे छोड़ कर आखिर यह कौन था जिस को ले कर मैं सोचने लगी थी. वरना मैं, मेरा कमरा मेरा मोबाइल, मेरी डायरी. इस के सिवा मैं किसी को अपना कीमती वक्त देना पसंद नहीं करती थी. आंखें नीची कर तेज चाल से जाने वाली मैं अब सड़कों पर किसी के साथ का इंतजार करने लगी थी.
3 महीने हो गए सर को जौइन किए हुए. अब हमारे बीच नियमित कुछ न कुछ बातों का आदानप्रदान होने लगा था. मैं छोटीमोटी चीजें बाजार से सर के द्वारा मंगवा लेती थी. वे चीजें देने के बहाने मेरे यहां आ जाया करते थे. हम चाय पीते हुए घर पर थोड़ी देर गपशप कर लिया करते थे. वे बहुत कम बोलते थे. दरअसल, वे मैथ्स के टीचर थे. मैं संगीत की. मुझे लिखनेपढ़ने में थोड़ी रुचि थी इसलिए मेरा अभिव्यक्ति पक्ष थोड़ा मजबूत था. हम एकदूसरे को सर और मैडम कह कर ही संबोधित करते थे.
वैसे तो मैं ने सपनों में किसी राजकुमार को देखा ही नहीं था. फिर भी मुझे बोलने वाले बिंदास लोग ही पसंद आते थे. पर फिर भी न जाने क्यों मैं सर से मिलने, उन से बात करने के बाद उन की छोटीछोटी बातों को सोचसोच कर खुश होने लगी थी. वे मेरी जिंदगी में बिना आहट किए दबेपांव प्रवेश कर चुके थे. मैं उन की तरफ खिंचने लगी थी. मैं जितनी बातूनी, चंचल, हंसमुख, वे उतने ही शांत, सौम्य, गंभीर. अब उन की मैथ में प्लस और माइनस का क्या रिजल्ट होता है, मैं जानना चाहती थी. एक दिन हम दोनों मेरे कमरे में बैठे चाय पी रहे थे तब मैं ने कहा कि कितने शांत हैं यह पहाड़ बिलकुल आप की तरह, मन करता है इस शांति के साथ हम देर तक यों ही बैठ कर चाय पीते रहें. मैं अपनी बात खत्म भी न कर पाई थी कि वे बीच में ही बोल पड़े, ‘‘यदि ज्यादा देर तक चाय पीनी है तो चलो कहीं बाहर घूमने चलते हैं.’’
यह बात उन के मुंह से सुन कर मैं अवाक् रह गई. वैसे तो हम पहाड़ों पर रहते थे. हमारा कालेज घाटी में था. पर हम दोनों ऐसे व्यवसाय से जुड़े थे कि उस जगह हम कहीं भी साथसाथ नहीं जा सकते थे.मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘कहां चलेंगे हम, यहां तो पहाड़ों के अलावा कुछ है ही नहीं.’’ तो उन्होंने बड़ी गंभीरता से कहा था, ‘‘पहाड़ों की ही तो जरूरत है, पहाड़ी से तुम्हें मांगना चाहता हूं, इसीलिए तो.’’ मेरा मन भावनाओं के अथाह सागर में गोते खाने लगा . अब तो जाना ही पड़ेगा.
उन की चंद अभिव्यक्तियों ने मुझे उन की दीवानी बना दिया था. जो मन में था वह बाहर आने लगा था. प्रेम परवान चढ़ने लगा था. वक्त तेजी से दौड़ रहा था.
‘‘मैडम, बड़े सर ने बुलाया है,’’ चपरासी क्लास में कहने आया. मैं तेजी से अपना बैग उठा कर पिं्रसिपल औफिस में पहुंची.
‘‘जी सर,’’ मैं ने कहा.
‘‘हां मैडम, आप का ट्रांसफर और्डर आ गया है. आप को देहरादून मिल गया है. बधाई हो,’’ प्रिंसिपल सर ने कहा. ‘मुझे ट्रांसफर नहीं चाहिए,’ मैं लगभग बुदबुदाई.
‘‘जी?’’ सर ने कहा.
‘‘नहीं, कुछ नहीं सर, कब जौइन करना है?’’ मैं ने पूछा.
‘‘विद इन अ वीक,’’ वे बोले.
मैं ने तेजी से अपना शरीर स्टाफरूम की तरफ ढकेला. टन…टन…टन छुट्टी की आवाज आई, मैं किसी से मिले बिना चुपचाप घर चली गई. तो क्या जिंदगी का एक अध्याय यहीं खत्म हुआ. नहींनहीं, ऐसा नहीं हो सकता. मैं यह ट्रांसफर लेना नहीं चाहती. मैं अभी एक ऐप्लीकेशन लिखती हूं. तभी अचानक फोन की घंटी से मैं स्वयं से बाहर निकली, ‘‘हैलो.’’
‘‘हां बेटा, मैं ने नैट पर देखा, तुम्हारा ट्रांसफर हो गया है. तुम अब घर आ जाओगी. चलो, अच्छा हुआ, मन बहुत परेशान रहता था. तुम्हें अकेला छोड़ तो रखा था पर…’’ पापा बोलते जा रहे थे. पर मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था.
मै इस घटना के बाद 2 दिन तक कालेज नहीं गई. तीसरे दिन सर, कुछ परेशान से घर पर आए, बोले, ‘‘क्या बात है मैडम, कालेज क्यों नहीं आईं? 4 दिन बाद तो आप वैसे भी जा रही हैं. फिर तो हम आप को देख नहीं पाएंगे.’’
मै फफक कर उन से लिपट गई. उन्होंने मुझे अपने से अलग करते हुए कहा, ‘‘मैं आप की आंखों में आंसू नहीं देख सकता. पर यह तो बताओ, आप क्यों रो रही हैं?’’
मैंने गुस्से से उन की तरफ देखा, ‘‘क्या आप नहीं जानते?’’
‘‘नहीं, मैं तुम्हारे मुंह से सुनना चाहता हूं.’’
‘‘मैं जाना नहीं चाहती.’’
‘‘क्यों, तुम ने तो रिक्वैस्ट की थी?’’
‘‘हां, पर तब कुछ और बात थी.’’
‘‘और अब क्या बात है?’’
‘‘तो सबकुछ मुझ से ही कहलवाना चाहते हैं. जैसे आप मुझे अपना बनाना चाहते हैं वैसे ही मैं भी,’’ कहते हुए मेरी आंखें फिर भर आई थीं. मेरी बात सुन कर वे हंसे.
‘‘आप को हंसी आ रही है. मैं देहरादून नहीं जाऊंगी,’’ मैं लगभग चीखती हुई सी बोली.
‘‘तो तुम्हें अपने पर विश्वास नहीं है?’’
‘‘शायद नहीं.’’
‘‘पर विश्वास के बिना तो प्यार भी पूर्ण नहीं होता है,’’ उन्होंने कहा तो मैं कुछ नहीं बोली.
4 दिनों के बाद पापा आ गए. मैं अपना सामान पैक कर के जाने को तैयार हो गई. भीगी पलकों से स्टाफ ने विदाई दी. सभी बसस्टैंड तक छोड़ने आए. सर भी आए. मुझे मन ही मन ऐसा लगा जैसे मैं अपनी भावनाओं के हाथों छली गई थी. सर के चेहरे पर सामान्य भाव थे. तो क्या उन्हें मेरे अलग होने का दुख नहीं हुआ. रास्ते भर इसी ऊहापोह में मेरा श्रीनगर से देहरादून का सफर तय हो गया.
मैं ने नया कालेज जौइन कर लिया. मेरा नए कालेज में बिलकुल मन नहीं लग रहा था. मैं कालेज जाती और आ जाती, न किसी से बोलना न बतियाना. एक सप्ताह के बाद जब छुट्टी की घंटी बजी. मैं कालेज से बाहर निकली तो सर सामने खड़े थे. मैं ठिठक गई, ‘‘अरे…अरे, आप?’’ मैं ने कहा.
‘‘क्यों, भूल गई या आश्चर्य हुआ,’’ उन्होंने हंसते हुए कहा.
‘‘हां, नहीं तो, पर आप यहां कैसे?’’
‘‘तुम्हें हमेशा के लिए अपना बनाने को आया हूं.’’
उन की इस बात से मैं हतप्रभ रह गई.
‘‘कल मम्मीपापा तुम्हें देखने तुम्हारे घर आ रहे हैं. जरा सजसंवर कर उन के सामने जाना. और हां, बोलना थोड़ा कम.’’
मैं शरमा गई. फिर हम ने बाहर जा कर चाय पी. ‘‘और कालेज में सब ठीक है?’’ मैं ने पूछा.
‘‘मैं तुम्हारे आने के बाद कालेज ही नहीं गया. नहीं गया या यों समझो कि जाने का मन ही नहीं हुआ. तुम्हारे जाने के बाद ऐसा लगा कि अब मैं बिलकुल अकेला हो गया. कुछ समझ में नहीं आ रहा था.
‘‘मांबाबा से अपने मन की बात बता कर बड़ी मुश्किल से तुम्हें देखने को राजी कर सका हूं. वे थोड़े परंपरावादी हैं पर तुम चिंता मत करो. मैं सही परंपराओं के निर्वहन पर विश्वास करता हूं और गलत का सख्त विरोध करता हूं. वैसे अंदर की बात यह है कि मेरी बहन नंदिनी को तुम पसंद हो. उस ने मम्मी को समझा कर तैयार कर लिया है. फिर भी आगे का खेल तुम्हारे हाथ में है.’’
मैं ने सर को इतना बोलते हुए और इतना खुश पहले कभी नहीं देखा था. वे हमेशा मुझे गंभीर, शांत से ही दिखे थे. पर हां, मैं नर्वस जरूर थी.
‘‘आप कमजोर लग रहे हैं,’’ मैं ने कहा पर उन्होंने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया. बिना कहे भी उन की आंखों ने बहुतकुछ कह दिया. उन की आंखें भीगी थीं. मैं कितनी गलत थी जो सोचती थी कि मैं छली गई.
वे वापस घर चले गए. मैं ने मां को डरतेडरते घर जा कर यह बात बताई. मांपापा मुझ से बहुत प्यार करते थे, मुझ पर उन्हें पूरा विश्वास था. इसलिए उन्होंने कोई नकारात्मक बात नहीं कही और अगले दिन की तैयारी के लिए जुट गए.
मैं ने सर की पसंदीदा रंग की साड़ी पहनी. चाय ले कर जब कमरे में पहुंची तो सर के मम्मीपापा के साथ नंदिनी भी थी. मुझे आश्चर्य हुआ यह देख कर कि मैं ने नंदिनी से इस से पहले कई बार बात की थी. वह उछल पड़ी, मैं शरमा गई.
मुझे माहौल थोड़ा भारी सा लगा. न तो मम्मीपापा ने ही उन्हें प्रभावित करने की कोशिश की और न ही उन्होंने ही ज्यादा बात की. उन की मां ने मुझ से बस यह पूछा कि कभी बरेली अपने घर पर गई हो. मैं ने हंस कर कह दिया कि वहां कोई रहता ही नहीं है, इसलिए पापा हमें वहां कभी भी नहीं ले गए. बस, सर की बहन ही बातें करती रही थी.
उन के जाने के बाद मां ने कुछ परेशान होते हुए कहा, ‘साड़ी उतार दो और मन में पल रहे प्रेम को मार दो क्योंकि यह रिश्ता नहीं हो सकेगा.’’ मुझे आश्चर्य हुआ ऐसा क्या था जो मां को पसंद नहीं आया. मैं ने झुंझलाते हुए कहा, ‘‘क्यों?’’
‘‘क्योंकि वे हमारे परिवार को पसंद नहीं करेंगे,’’ जवाब पापा ने दिया था.
मैं पापा की तरफ मुड़ी, ‘‘पर उन्होंने तो ऐसा कुछ नहीं कहा.’’
‘‘25 साल पहले ही कह दिया था जब तुम्हारे चाचा ने तुम्हारी चाची से अंतर्जातीय विवाह किया था. तुम्हारी चाची एक ऐसी जाति से हैं जिसे अपने समाज ने तिरस्कृत किया है. चाचाजी तो चाची से शादी कर के विदेश चले गए पर हमारे परिवार का हुक्कापानी अपनी जाति वालों ने बंद कर दिया. हम मां और पिताजी को ले कर देहरादून आ गए. तब से हम बरेली लौट कर नहीं गए. अपनों से दूर, अपनी मिट्टी से दूर, अपने रिश्तों से दूर. मां इसी गम को लिए साल भर के भीतर चल बसीं और पिताजीउन के 5 साल बाद. न चाचाजी को फिर कभी दोबारा देखा और न अपना घर,’’ पापा ने लंबी सांस ली. मां ने पापा के कंधे को पकड़ लिया.
पापा इन चंद लमहों में मुझे बूढ़े दिखाई देने लगे. मैं झल्लाई, ‘‘हुक्कापानी बंद पर पापा, यह तो अब ब्लैक ऐंड व्हाइट मूवी की स्टोरी जैसा लगता है. पापा इंटरनैट का जमाना है. लोग दूसरे प्लैनैट्स पर कालोनीज बनाने की सोच रहे हैं. क्या आज भी 25 साल पुरानी बातें माने रखेंगी? यह आप का पूर्वाग्रह है. आप परेशान न हों, देखना कल सर का ‘हां’ में फोन जरूर आएगा.’’ पाप मुसकराए और बोले, ‘‘बेटा, बदलाव की बयार चल जरूर रही है पर सब को छू नहीं पा रही है. तुम नहीं जानतीं, आज भी अपटूडेट दिखने वाले भी वैसे ही अनपढ़ हैं जैसे पहले थे. आज भी हम हर जाति के साथ अपना लंच शेयर नहीं करते. मैं नेतो अपने स्कूल में देखा है, बच्चों का एक समूह आज भी दीवार से चिपक कर जमीन पर बैठ कर चुपचाप अपना खाना खा लेता
है. यह जाति और छुआछूत की समस्या सदियों से चली आ रही है और पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहेगी जब तक इस देश के युवा स्वयं कोई ठोस कदम नहीं उठाते. हमें ठोस कदम के साथ आगे बढ़ना होगा.
मैं तुम्हारे चाचा की कुछ बातों से सहमत नहीं. उसे शादी कर के वहीं रहना था. यदि हम दो होते तो उस विरोध को आसानी से झेल लेते. आज मैं इसलिए दुखी नहीं हूं कि तुम्हारे चाचा द्वारा उठाया गया कदम तुम्हारे आगे परेशानी बन कर खड़ा है, बल्कि इसलिए कि तुम्हें तुम्हारी पसंद नहीं दिला पाऊंगा.’’
मैं संभल चुकी थी और अब मुझे चाचा के द्वारा जलाई मशाल को ले कर आगे बढ़ना था.
मैं ने अगले दिन सर को फोन किया और अपने इरादों को बताया. सर ने सिर्फ इतना कहा कि मैं अपने इरादों में मजबूत हूं. अब यह शादी सिर्फ प्यार को पाने के लिए नहीं, बल्कि युवाओं में जातिगत भावना से ऊपर उठने के लिए एक अलख जगाना है.’’ मैं ने कहा, ‘‘मैं तुम्हारा इंतजार करूंगी और इस जंग में हमेशा तुम्हारे साथ हूं.’’
इस बात को 1 वर्ष हो गया. उस के बाद न तो उन का कोई फोन आया, न ही कोई समाचार. मैं ने कई बार उन्हें फोन करने का प्रयास किया पर नंबर मिला ही नहीं. शायद, सब यहीं खत्म हो गया, मुझे अब ऐसा लगने लगा. लड़का व लड़की भावनाओं में बह कर शादी के बड़ेबड़े वादे तो कर लेते हैं पर रूढि़वादी परंपराओं की दीवार तोड़ने का साहसी कदम नहीं उठा पाते.
फरवरी का महीना, कोहरा खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था. मैं कालेज जा रही थी. आज वैलेंटाइन डे था. कालेज में सभी के हाथ में गुलाब, ग्रीटिंग और खुशियां देखते ही बनती थीं. मैं धुंध की मोटी चादर में सिमटती जा रही थी. छुट्टी हो गई. लो, यह दिन भी खत्म हुआ. टिं्रगटिं्रग की आवाज से स्वयं से बाहर आई. पर्स से मोबाइल निकाला. अनफीडेड नंबर देख बेमन से ‘हैलो’ कहा.
‘‘हां, मैं बोल रहा हूं, हैपी वैलेंटाइन डे. बाहर निकलो, तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं.’’
उधर से चिरप्रतीक्षित आवाज सुन कर चेहरा खिल गया. चाल तेज हो गई. बाहर आई. सर खड़े हुए थे. उन्हें देख मेरी आंखों में आंसू आ गए. उन से लिपट कर रोना चाहती थी. ‘हमेशा इतना इंतजार और सरप्राइज क्यों देते हैं आप?’ कहना चाहती थी. पर छुट्टी हो गई थी, बच्चे बाहर जा रहे थे, न कुछ कह सकी न कर सकी. बस, उन के साथ आगे बढ़ने लगी.
‘‘इतने दिनों बाद? नंबर क्या बदल लिया? कहां थे? कहां से आ रहे हो? क्या सब शादी के लिए राजी हो गए?’’ मैं ने पूछा.
‘‘इतने सवाल एकसाथ पूछोगी तो कैसे बता पाऊंगा,’’ उन्होंने कहा.
मेरे बहुत समझाने पर वे शादी के लिए राजी हो गए हैं. मैं ने तुम्हारा ट्रांसफर भी कैंसिल करवा दिया है. पापा संडे को ‘रोके’ के लिए आ रहे हैं. नंदिनी ने अपने साथ प्रैक्टिस कर रहे डाक्टर को पसंद किया है. जब वे लोग नंदिनी का हाथ मांगने आए तअंतर्जातीय होने के बाद भी मांबाबा मना नहीं कर सके और उन्होंने मुझ से कहा कि फिर तुम ने क्या गलती की है. सो, वे शादी की बात आगे बढ़ाने के लिए आ रहे हैं. और हां, हम अपना रिसैप्शन बरेली में करेंगे ताकि तुम और तुम्हारे मम्मीपापा फिर से अपना खोया हुआ घर देख सकें. चलो, जल्दी करो, बस चल देगी.’’
मैं ने बस में बैठे हुए पूछा, ‘‘हम कहां जा रहे हैं?’’
‘‘शादी की तारीख निकलवाने,’’ वे हंसते हुए बोले.
मैं ने बस में बैठ कर बाहर देखा, धूप निकल आई थी, कोहरा छंट गया था. सड़कों पर लड़के और लड़कियों के हाथों में वैलेंटाइन डे के गुलाबों की मुसकान साफ नजर आ रही थी.