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कहानी: अजनबी

अनजान, सुनसान रात के अंधेरे में रेलवे स्टेशन पर बैठी मैं मन ही मन घबराने लगी. थोड़ी देर बाद वहां दो संदिग्ध किस्म के युवक आ धमके. फिर क्या हुआ?
सभी कुछ था वहां, स्टेशनों में आमतौर पर पाई जाने वाली गहमागहमी, हाथों में सूटकेस और कंधे पर बैग लटकाए, चेहरे से पसीना टपकाते यात्री, कुछ के पास सामान के नाम पर मात्र एक बैग और पानी की बोतल, साथ ही, अधिक सामान ले कर यात्रा करने वालों के लिए एक उपहास उड़ाती सी हंसी. कुछ बेचारे इतने थके हुए कि मानो एक कदम भी न चल पाएंगे. कुछ देरी से चल रही ट्रेनों की प्रतीक्षा में प्लेटफौर्म पर ही चादर बिछा कर, अपनी अटैची या बैग को सिरहाना बनाए लेटे हुए या सोये हुए थे. कुछ एकदम खाली हाथ हिलाते हुए निर्विकार, निरुद्देश्य से चले जा रहे थे.

यात्रियों की ऐसी ही विविध प्रजातियों के बीच खड़ी थी मैं और मेरे 2 बच्चे. सफर तो हम भी बहुत लंबा तय कर के आ रहे थे. सामान भी काफी था. तीनों ही अपनेअपने सूटकेस पकड़े हुए थे. किसी पर कोई अतिरिक्त बोझ नहीं था. अवधेश, मेरा बेटा, बहुत सहायता करता है ऐसे समय में. बेटी नीति तो अपना बैग उठा ले, वही बहुत है.

मन में कुछ घबराहट थी. यों तो अनेक बार अकेले सफर कर चुकी थी किंतु पूर्वोत्तर के इस सुदूर असम प्रदेश में पहली बार आना हुआ था. मेरे पति प्रकाश 8 माह पूर्व ही स्थानांतरण के बाद यहां आ चुके थे. बच्चों की पढ़ाई में व्यवधान न हो, इसीलिए स्कूल के सत्र-समापन पर ही हम अब आए थे. मेरी घबराहट का कारण था, यहां आएदिन होने वाले प्रदर्शन, अपहरण, बम विस्फोट और इसी तरह की अराजक घटनाएं जिन के विषय में आएदिन समाचारपत्रों व टैलीविजन में देखा व पढ़ा था. रेलवे स्टेशनों पर पटरियों पर आएदिन अराजक तत्त्व कुछ न कुछ अनहोनी करते थे. किंतु अपनी घबराहट की ‘हिंट’ भी मैं बच्चों को नहीं देना चाहती थी. ‘खामखाह, दोनों डर जाएंगे,’ मैं ने सोचा. अवधेश मेरे चेहरे, मेरे हावभाव से मेरी मनोदशा का एकदम सटीक अनुमान लगा लेता है, इसीलिए प्रयास कर रही थी कि उसे पता न चले कि उस की मम्मी थोड़ी डरी हुई है.

‘‘नीति, बैग ठीक से पकड़ो, हिलाहिला कर क्यों चल रही हो,’’ मैं उस पर झुंझला रही थी. एक बार पहले भी नीति इसी तरह एक सूटकेस को गिरा चुकी थी जिस से उस का हैंडल टूट गया था. बहुत मुश्किल से उसे उठा कर ट्रेन तक ला पाए थे अवधेश और उस के पापा. देखा, तो नीति काफी पीछे रह गई थी, ‘‘थोड़ा तेज चलो न, प्लेटफौर्म नंबर 7 अभी काफी आगे है,’’ मैं ने कहा.

वह कहां चुप रहने वाली थी. झट से बोली, ‘‘चल तो रही हूं, मम्मी. इतने भारी बैग के साथ मैं इस से ज्यादा तेज नहीं चल सकती.’’

‘‘नीति, ला मुझे दे अपना बैग,’’ अवधेश ने कहा.

‘‘ओ वाओ बिग ब्रदर, थैंक्यू,’’ कहते हुए नीति ने बैग वहीं छोड़ दिया.

मुझे बड़ा गुस्सा आया, ‘‘तुम को दिखाई नहीं दे रहा. भैया के पास पहले ही सब से बड़ा सूटकेस है. तुम्हारा बैग भी कैसे पकड़ेगा वह?’’

‘‘ओ मां, आप चिंता न करें, मैं उठा लूंगा,’’ कहतेकहते एक प्रश्नसूचक मुसकराहट से मेरी ओर देखा अवधेश ने. छोटीछोटी बातों पर खीज उठने की मेरी आदत से, तुरंत मेरी घबराहट का अंदाजा लगा लेता है अवधेश. मैं उस की मां हूं, उस की रगरग से वाकिफ हूं. वह भी मेरे हर मूड को, हर अनकही बात को ऐसे समझ लेता है कि कई बार मन एक सुखद आश्चर्य से भर उठता है. कई बार चिढ़ भी जाती मैं, क्यों समझ जाता है यह सबकुछ.

‘‘आप चिंता मत करो, 7 नंबर प्लेटफौर्म पास ही है, धीरेधीरे भी चलेंगे तो 10 मिनट में पहुंच जाएंगे, आप घबराओ मत, मां. बहुत टाइम है हमारे पास,’’ अवधेश बोला.

उस की बातों से कुछ संबल मिला. थोड़ी आश्वस्त हो गई मैं. वैसे तो शाम के 7 ही बजे थे किंतु नौर्थईस्ट इलाके में सूर्यास्त जल्दी हो जाने से इस समय अच्छाखासा अंधेरा हो गया था. सुबह 4 बजे के जगे हम तीनों देहरादून से आ रहे थे. वहां से बस द्वारा दिल्ली, दिल्ली से बाई एअर गुवाहाटी, वहां से एक मारुति वैन में घंटों सफर करने के बाद अब हम खड़े थे एक अन्य रेलवे स्टेशन पर. ‘सिमलगुड़ी’ यह नाम पहली बार ही सुना था. यहां से रात साढ़े 11 बजे की ‘इंटरसिटी’ ट्रेन थी, जोकि सवेरे 5 बजे के आसपास हमें ‘नाजिरा’ पहुंचा देती. वहां छोटा सा कसबा है नाजिरा, प्रकाशजी ने बताया था. वहां तेलखनन से संबंधित गतिविधियां चलती थीं और पिछले 7-8 माह से वे वहां स्थानांतरित थे.

छोटा सा गांव था सिमलगुड़ी. कई ट्रेनें यहां से आतीजाती थीं. महानगरों के आदी हम तीनों को यह स्टेशन एकदम सुनसान सा लग रहा था जबकि ऐसा था नहीं, लोग थे पर लोगों की भीड़ नहीं. रोशनी भी कुछ खास नहीं थी. प्लेटफौर्म नंबर 7 पर एक खाली बैंच देख अवधेश ने सामान रख दिया और हाथ हिला कर हमें जल्दी से वहां आने का इशारा किया. हम दोनों मांबेटी धीरेधीरे अपना सामान लिए पहुंच ही गईं. पुरानी सी बैंच, लकड़ी से बनी, जिस की 5 में से 2 फट्टियां बैठने के स्थान से गायब थीं. और चौथी टांग की तबीयत भी कुछ नासाज लग रही थी. अवधेश ने उपाय सुझाया, ‘‘आप और नीति बैंच के बीचोबीच बैठ जाओ, कुछ नहीं होगा. मैं अपने सूटकेस को नीचे रख कर उस पर बैठ जाऊंगा, ठीक है न, मां.’’

सहमति में मैं ने सिर हिला दिया. वह सामान सैट करने लगा. तीनों ही बहुत थके हुए थे. काफी देर यों ही चुपचाप बैठे रहे और आतेजाते लोगों को देखते रहे.

धीरेधीरे स्टेशन पर खड़ी ट्रेनें एकएक कर अपनेअपने गंतव्य की ओर जा रही थीं. यात्रियों की भीड़ भी छंट रही थी. कुछ समय बाद कुछ ही लोग नजर आ रहे थे वहां. अनजान, सुनसान उस जगह पर बैठी मैं मन ही मन फिर घबराने लगी थी. जो जगह 8 बजे ही इतनी सुनसान लग रही है तो रात साढ़े 11 बजे उस का स्वरूप कैसा होगा, कल्पनामात्र से ही डर रही थी मैं.
मेरा मन किसी बुरी आशंका से डरने लगा, ‘अब क्या होगा,’ सोचतेसोचते कब मेरी कल्पना के घोड़े दौड़ने लगे, पता नहीं. क्या होगा इन बोरों में? कहीं बम तो नहीं
कुछ ही देर में वहां 2 युवक आए, कुछ क्षण चारों ओर देखा, फिर हमारी बैंच के समीप ही अपना सामान रखने लगे. एक दृष्टि उन पर डाली. गौरवर्ण, छोटीछोटी आंखें और गोल व भरा सा चेहरा…वहां के स्थानीय लोग लग रहे थे. सामान के नाम पर 2 बड़े बोरे थे जिन का मुंह लाल रंग की प्लास्टिक की डोरी से बंधा था. एक बक्सा स्टील का, पुराने समय की याद दिलाता सा. एक सरसरी नजर उन्होंने हम पर डाली, आंखों ही आंखों में इशारों से कुछ बातचीत की, और दोनों बोरे ठीक हमारी बैंच के पीछे सटा कर लगा दिए. बक्से को अवधेश की ओर रख कर तेजी से वे दोनों वहां से चले गए.

वे दोनों कुछ संदिग्ध लगे. मेरा मन किसी बुरी आशंका से डरने लगा, ‘अब क्या होगा,’ सोचतेसोचते कब मेरी कल्पना के घोड़े दौड़ने लगे, पता नहीं. क्या होगा इन बोरों में? कहीं बम तो नहीं? दोनों पक्के बदमाश लग रहे थे. सामान छोड़ कर कोई यों ही नहीं चला जाता. पक्का, इस में बम ही है. बस, अब धमाका होगा. घबराहट में हाथपांव शिथिल  हो रहे थे. बस दौड़ रहे थे तो मेरी कल्पना के बेलगाम घोड़े. कल सुबह के समाचारपत्रों की हैडलाइंस मुझे आज, इसी क्षण दिखाई दे रही थीं… ‘सिमलगुड़ी रेलवे स्टेशन पर कल रात हुए तेज बम धमाकों में कई लोग घायल, कुछ की स्थिति गंभीर.’ हताहतों की सूची में अपना नाम सब से ऊपर दिख रहा था. प्रकाशजी का गमगीन चेहरा, रोतेबिलखते रिश्तेदार और न जाने क्याक्या. पिछले 10 सैकंड में आने वाले 24 घंटों को दिखा दिया था मेरी कल्पना ने.

‘‘मां, देखो, वेइंग मशीन,’’ नीति की आवाज मुझे विचारों की दुनिया से बाहर खींच लाई. कहां थी मैं? मानो ‘टाइम मशीन’ में बैठी आने वाले समय को देख रही थी और यहां दोनों बच्चे बड़े ही कौतूहल से इस छोटे से स्टेशन का निरीक्षण कर रहे थे. कुछ आश्वस्त हुई मैं. घबराहट भी कम हो गई. कुछ उत्तर दे पाती नीति को, उस से पहले ही अवधेश बोला, ‘‘कभी देखी नहीं है क्या? हर स्टेशन पर तो होती हैं ये. वैसे भी अब तो ये आउटडेटेड हो चुकी हैं. इलैक्ट्रौनिक स्केल्स आ जाने से अब इन्हें कोई यूज नहीं करता.’’

सच ही तो कहा उस ने. हर रेलवे स्टेशन पर लालपीलीनीली जलतीबुझती बत्तियों वाली बड़ीबड़ी वजन नापने की मशीनें होती ही हैं. मानो उन के बिना स्टेशन की तसवीर ही अधूरी है. फिर भी किसी फिल्म के चरित्र कलाकार की भांति वे पार्श्व में ही रह जाती हैं, आकर्षण का केंद्र नहीं बन पातीं. किंतु जब हम छोटे बच्चे थे, हमारे लिए ये अवश्य आकर्षण का केंद्र होती थीं. कितनी ही बार पापा से 1 रुपए का सिक्का ले कर मशीन पर अपना वजन मापा करते थे. वजन से अधिक हम बच्चों को लुभाते थे टोकन के पीछे लिखे छोटेछोटे संदेश ‘अचानक धन लाभ होगा’, ‘परिश्रम करें सफलता मिलेगी’, ‘कटु वचनों से परहेज करें’ आदिआदि.

ऐसा ही एक संदेश मुझे आज भी याद है, ‘बुरी संगति छोड़ दें, अप्रत्याशित सफलता मिलेगी.’ मेरा बालमन कई दिनों तक इसी ऊहापोह में रहा कि मेरी कौन सी सहेली अच्छी नहीं है जिस का साथ छोड़ देने से मुझे अप्रत्याशित सफलता मिलेगी, 10वीं की बोर्ड की परीक्षा जो आने वाली थी. खैर, मेरी हर सखी मुझे अतिप्रिय थी. और यदि बुरी होती भी तो मित्रता के मूल्य पर मुझे सफलता की चाह नहीं थी. काफी ‘इमोशनल फूल’ थी मैं या हूं. शायद, इस बार टाइममशीन के ‘पास्ट मोड’ में चली गई थी मैं.

‘‘मां, आप के पास टू रुपीज का कौइन है?’’ नीति की खिचड़ी भाषा ने तेजी से मेरी तंद्रा भंग कर दी.

‘‘कितनी बार कहा है नीति, तुम्हारी इस खिचड़ी भाषा से मुझे बड़ी कोफ्त होती है. अरे, हिंदी बोल रही हो तो ठीक से तो बोलो,’’ मैं झुंझला रही थी, ‘‘पता नहीं, यह आज की पीढ़ी अपनी भाषा तक ठीक से नहीं बोलती,’’ अवधेश मेरी झुंझलाहट पढ़ पा रहा था, बोला, ‘‘अरे मां, आजकल यही हिंगलिश चलती है, आप की जैसी भाषा सुन कर तो लोग ताकते ही रह जाते हैं, कुछ समझ नहीं आता उन्हें. आप भी थोड़ा मौडर्न लिंगो क्यों यूज नहीं करतीं?’’ और दोनों भाईबहन ठहाका मार कर हंसने लगे. मन कुछ हलका सा हो गया.

‘‘अच्छा बाबा, मुझे माफ करो तुम दोनों. मैं ठीक हूं अपने …’’

मेरे वाक्य पूरा करने से पहले ही दोनों एकसाथ बोले, ‘‘प्राचीन काल में,’’ और फिर हंसने लगे.

तभी मैं ने देखा वे दोनों युवक वापस आ रहे थे. हमारे समीप ही वे दोनों अपने सामान पर पांव फैला कर बैठ गए. उन को एकदम अनदेखा करते हुए हम चुपचाप इधरउधर देखने लगे. खैर, कुछ देर सब शांत रहा. फिर वे दोनों अपनी भाषा में वार्त्तालाप करने लगे. एक बात थी, उन की भाषा, बोली, उन का मद्धिम स्वर, सब बड़े ही मीठे थे. मैं चुपचाप समझने का प्रयास करती रही. शायद, उन का ‘प्लान’ समझ आ जाए पर कुछ पल्ले नहीं पड़ा. आसपास देखा तो स्टेशन पर कम ही लोग थे. गुवाहाटी के लिए खड़ी ट्रेन में अधिकांश लोग यहीं से चढ़े थे. ट्रेन चली गई. एक अजीब सी नीरवता पसर गई थी.

सामने सीढि़यों से उतरते हुए एक सज्जन, कंधे पर टंगा बैग और हाथ में एक बंधा हुआ बोरा लिए इस ओर ही आ रहे थे. 2 बंधे बोरे मेरे पास ही पड़े थे. ‘शायद बोरों में ही सामान भर कर ले जाते हैं ये लोग,’ मैं ने सोचा. तभी वे रुके, जेब से कुछ निकाला और तेजी से हमारी ओर बढ़ने लगे. मैं सतर्क हो गई. पर मेरा संदेह निर्मूल था. वे तो हाथ में एक सिक्का लिए, बड़े ही उत्साह से वजन मापने की मशीन की ओर जा रहे थे. अपना बैग, बोरा नीचे रख धीमे से वे मशीन पर खड़े हो गए. जलतीबुझती बत्तियों के साथ जैसे ही लालसफेद चकरी रुकी वैसे ही उन्होंने सिक्का अंदर डाल दिया जिस की गिरने की आवाज हम ने भी सुनी. अब वे सज्जन बड़ी ही आशा व उत्साह से मशीन के उस भाग को अपलक निहार रहे थे जहां से वजन का टोकन बाहर आता है. 15-20 सैकंड गुजर गए किंतु कुछ नहीं निकला.
मां को पति के क्रोध का कुछ ऐसा डर था कि आव देखा न ताव, पर्स से पैसे निकाले और अवधेश को मुकुटनाथ के साथ भेज दिया।
पास बैठे युवकों में से एक ने शरारत भरे स्वर में पूछा, ‘‘की होल दादा?’’ यानी क्या हुआ भाईसाहब. सज्जन ने आग्नेय नेत्रों से पीछे पलट कर देखा पर बोले कुछ नहीं. कुछ समय और गुजरा. टोकन को बाहर न आना था, न आया. दोनों युवक मुंह दबा कर हंस रहे थे. हम तीनों मांबच्चों को कुछ समझ नहीं आया कि हो क्या रहा है.

सिक्का व्यर्थ ही खो देने का दुख था, अपना वजन न देख पाने की हताशा या फिर आसपास के लोगों के उपहास का केंद्र बन जाने की खिसियाहट, इन में से जाने कौन सी भावना के चलते उन्होंने मशीन को भरपूर मुक्का और लात जड़ दी और तेजी से अपना सामान उठा चलते बने. अब की बार दोनों युवकों के साथ नीति व अवधेश भी जोर से हंस पड़े.

एक युवक मेरी ओर देखते हुए बोला, ‘‘बाइडो.’’ तभी दूसरे ने उसे हिंदी में बोलने को कहा.

‘‘दीदीजी, यह मशीन मैं 4 बरस से देख रहा हूं,’’ सिक्का लहराते हुए उस ने कहा.

दूसरा बोला, ‘‘हां दीदीजी, हर महीने काम के सिलसिले में 4-5 बार यहां से आनाजाना होता है, पर हम ने इस को काम करते कभी नहीं देखा. लोग सिक्का डालडाल कर इस में दुखी होते रहते हैं.’’

दूसरे युवक की हिंदी पहले युवक से अच्छी थी. दोनों ही हंसहंस कर लोटपोट हुए जा रहे थे.

भय कुछ कम होने लगा. मैं ने उन के नाम पूछे.

‘‘मुकुटनाथ,’’ पहले ने कहा.

‘‘और मेरा, टुनटुन हाटीकाकोटी,’’ दूसरा बेला.

हम तीनों ही हंस पड़े. नीति ने पूछा, ‘‘अंकल, आप तो इतने स्लिम हो फिर टुनटुन नाम क्यों रखा गया आप का?’’

वह समझा नहीं. तब मैं ने बताया कि टुनटुन नाम की एक बहुत मोटी हास्य अभिनेत्री थी, और ‘टुनटुन’ शब्द मोटापे व मसखरेपन का पर्याय ही था हमारे लिए. यह जान कर वह भी मुसकरा दिया.

मैं ने गौर किया, अवधेश थोड़ा सजग हो सीधा बैठ गया था. इतनी जल्दी वह किसी अजनबी से घुलतामिलता नहीं था, शायद अपने पापा की हिदायतें उसे याद हो आई थीं, ‘स्टेशन पर किसी अजनबी से बहुत बात मत करना, एक जगह बैठे रहना, सामान को ध्यान से रखना, कोई पूछे तो कहना कि हम यहीं के हैं. यह पूछने का साहस हम ने कभी नहीं किया कि हमारी शक्लें, बोलीभाषा क्या हमारा परिचय नहीं दे देतीं? आजकल मीठीमीठी बातें कर के लोग दोस्त बन जाते हैं और मौका पाते ही चोरी कर नौ दो ग्यारह हो जाते हैं. सीधेसादे लोगों को वे दूर से ही पहचान लेते हैं.

प्रकाशजी के लिए सारी दुनिया में हम से अधिक सीधासादा (कहना शायद वे बेवकूफ चाहते थे पर कह नहीं पाते थे) और कोई न था और हर व्यक्ति बस हमें ठग लेने की प्रतीक्षा में ही बैठा था. खीज तो बहुत होती थी पर मैं इन सब से…पर एक पति और पिता होने के नाते उन का यह अति सुरक्षात्मक रवैया मैं अच्छी तरह समझती भी थी.

एक और हिदायत याद हो आई, ‘स्टेशन पर पहुंचते ही फोन कर देना, मैं इंतजार करूंगा.’

‘ओह, यहां पहुंचे हुए तो डेढ़ घंटा बीत चुका है, वहां वे प्रतीक्षा कर रहे होंगे,’ मैं ने अवधेश को याद दिलाया. इधरउधर नजर दौड़ाई कोई पीसीओ नजर नहीं आया, मोबाइल की बैटरी दिन में ‘डाउन’ हो चुकी थी. दोनों बच्चे चुप हो गए. अपने पापा के स्वभाव को जानते थे. समय पर काम नहीं हुआ तो पारा सातवें आसमान पर चढ़ जाता था.

मुकुटनाथ हमें अचानक यों चुप देख कर बोला, ‘‘क्या हुआ, दीदीजी? आप परेशान लग रही हैं.’’

‘‘ऐसी तो कोई बात नहीं, बस घर पर फोन करना था पर कोई बूथ नजर नहीं आ रहा,’’ मैं ने कहा.

‘‘एक टैलीफोन बूथ है तो, किंतु दूर है, स्टेशन के बाहर.’’

पति के क्रोध का कुछ ऐसा डर था कि आव देखा न ताव, पर्स से पैसे निकाले और अवधेश को मुकुटनाथ के साथ भेज दिया. चैन की एक लंबी सांस ली मैं ने. सच, कितनी अच्छाइयां थीं प्रकाशजी में. एक बहुत ही परिश्रमी और सैल्फमेड व्यक्ति थे, कोई दुर्व्यसन नहीं, चरित्रवान और बहुत ही और्गेनाइज्ड… किंतु उन का शौर्ट टैंपर्ड होना, बातबेबात कहीं पर भी चिल्ला देना, सभी अच्छाइयों को धूमिल बना जाता था. बच्चे भी उन से डरते थे.

तकरीबन 10 मिनट गुजर चुके थे अवधेश को मुकुटनाथ के साथ गए. अचानक जैसे मैं नींद से जागी, ‘यह मैं ने क्या किया? बच्चे को एक अजनबी के साथ भेज दिया. अभी कुछ समय पहले जो मुझे संदेहास्पद लग रहे थे उन के साथ?’ कलेजा मुंह को आने का अनुभव उसी क्षण हुआ मुझे. ‘कहीं अवधेश को अपने साथ तो नहीं भगा ले गया वह?’ कल्पना के घोड़े फिर से दौड़ने को तत्पर थे. ‘क्या अवधेश को किडनैप कर लिया है उन्होंने? फिरौती मांगेंगे या कहीं अपने उग्रवादी संगठन में जबरन भरती कर लेंगे. मेरा बच्चा उस संगठन की यूनिफौर्म पहने, माथे पर काली पट्टी और हाथ में स्टेनगन लिए नजर आ रहा था मुझे.’

‘‘मां, कहां खो गईं आप?’’ नीति मेरा कंधा झकझोर रही थी, ‘‘आप का चेहरा अचानक पीला क्यों पड़ गया? तबीयत ठीक है?’’

वह क्या समझती कि कैसा झंझावात चल रहा था भीतर, ‘‘कहां जाऊं, क्या करूं, क्या शोर मचाऊं, कुछ समझ नहीं आ रहा था, क्या मैं भी बाहर जा कर देखूं?’’ पर नीति को एक अन्य अजनबी के साथ छोड़ कर जाने का दुस्साहस नहीं हुआ. यह बेवकूफी मैं ने कैसे कर दी, कोस रही थी स्वयं को मैं.

बाहर से शांत रहने का असफल प्रयास करती मैं देख रही थी, नीति कैसे टुनटुन नाम के उस युवक के साथ खिलखिला रही थी, मशीन पर आनेजाने वालों और उन की प्रतिक्रियाओं पर. उस क्षण उस का वह खिलखिलाना मुझे बेहद अखर रहा था. मन किया कि डांट कर चुप करा दूं. किंतु छठी इंद्रिय संयत रहने को कह रही थी. नीति को बता रहा था टुनटुन कि वह बच्चों को तबला बजाना सिखाता है. और उस का अपना एक म्यूजिकल ग्रुप भी है जो पार्टियों में या अन्य समारोहों में जाता है.
मुकुटनाथ अपनी बोरी को खोल कर उस में से कुछ निकाल रहा था. मेरे पास आया और 2 खाकी भूरे से कागज के बडे़बड़े पैकेट मेरी ओर बढ़ाते हुए बोला, ‘‘दीदीजी, यह चायपत्ती है
‘‘अंकल, और क्याक्या करते हैं आप?’’ नीति ने पूछा.

‘‘मेरी एक ‘बिहूटोली’ है, बिहू के समय वह घरघर जाती है, गाने गाती है, ‘बिहू’ करती है. पिछले साल फर्स्ट प्राइज भी जीता था हमारी बिहूटोली ने,’’ बड़े उत्साह से वर्णन कर रहा था वह इस बात से अनभिज्ञ कि मैं भीतर ही भीतर क्रोध से धधक रही हूं. अपने क्रोध को दबाते हुए तल्खी भरे स्वर से मैं ने पूछा, ‘‘नाचतेगाते ही हो या कुछ कामधाम भी करते हो?’’

‘‘हां दीदीजी, मैं ने इसी बरस पौलिटैक्निक की परीक्षा पास की है,’’ वह बड़ी विनम्रतापूर्वक बोला.

‘‘और तुम्हारा वह मुकुटनाथ?’’

‘‘दीदीजी, वह चाय की फैक्टरी में काम करता है, त्योहारों में ‘भाओना’ में काम करता है,’’ मेरी कड़वाहट को भांपते हुए वह धीरेधीरे सौम्यता से उत्तर दे रहा था.

‘‘भाओना क्या होता है?’’ नीति ने उत्सुकतापूर्वक पूछा.

‘‘धार्मिक नाटक होता है…’’

नीति बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘हांहां अंकल, हमारे होम टाउन में भी होती है ‘रामलीला,’ मैं ने भी देखी है.’’

यहां के लोगों के कलाप्रेमी होने के विषय में मैं जानती थी, किंतु इस वक्त संगीतवंगीत, कलावला सब व्यर्थ की चीजें जान पड़ रही थीं. एक मन हुआ कि उस का गला पकड़ कर चीखचीख कर पूछूं, ‘कहां है मेरा बच्चा? कहां ले गया तुम्हारा साथी उसे?’ क्रोध से जन्मे पागल पशु की नकेल मैं भीतर कस के पकड़े थी. किंतु रहरह कर मेरे स्वर की तल्खी बढ़ जाती.

पूरे 25 मिनट हो गए थे अवधेश को गए. खैर, मेरा संयत रहना ठीक रहा. सामने से अवधेश आ रहा था मुकुटनाथ के साथ. आंखें छलछलाने को हो गईं. फिर संयत किया स्वयं को, कैसे पब्लिक में हम सभ्य समाज के सदस्य अपने इमोशंस को दिखाएं. लोग क्या सोचेंगे, यह फिक्र पहले हो जाती है.

‘‘इतनी देर कहां लगा दी, अवधेश?’’ भारी सा था मेरा गला.

‘‘कहां मां, देर तो नहीं हुई, यह तो मुकुट दादा शौर्टकट से ले गए वरना और समय लग जाता. हां, पापा से बात हो गई. इसलिए अब आप रिलैक्स हो जाइए. ओ के.’’

‘‘ठीक है, बेटे,’’ मन ही मन सोच रही थी मुकुटदादा, यह कैसे? फिर उस से कहा, ‘‘तुम्हारा बहुतबहुत धन्यवाद, मुकुटनाथ.’’

‘‘अरे दीदीजी, धन्यवाद किसलिए,’’ शरमा कर बोला वह.

धीरेधीरे उन से बातों की शृंखला जो जुड़ी तो जुड़ती चली गई. दोनों बच्चे उन से घुलमिल गए थे.

उन दोनों युवकों के प्रति मेरे मन में जो कलुषता आ गई थी उसे साफ करने का प्रयास कर रही थी मैं. सच, हम पढ़ेलिखे शहरी लोग महानगरों के कंक्रीट जंगलों में रहतेरहते वैसे ही बन जाते हैं, कंक्रीट जैसे सख्त. किंतु वहां हुए कुछ कटु अनुभव हमें विवश कर देते हैं सरलता छोड़ वक्र हो जाने पर.

निस्वार्थ जैसा शब्द तो महानगरों में अपना अस्तित्व कब का खो चुका था. किसी को निस्वार्थ भाव से या उदारता दिखाते कुछ कार्य करता देख लोग उस की प्रशंसा की जगह उस पर संदेह ही करते हैं. ‘यह कुछ जरूरत से ज्यादा अच्छा बनने की कोशिश कर रहा है, आखिर क्यों? जरूर अपना कोई उल्लू सीधा करना होगा. छोटे गांवों और कसबों में यह निश्छलता अब भी है,’ ये सब सोचते हुए स्वयं पर ग्लानि हो आई.

अब हम और हम से 4 बैंच छोड़ कर एक और परिवार रात को आने वाली इंटरसिटी की प्रतीक्षा कर रहा था. अभी डेढ़ घंटा और बाकी था. प्लेटफौर्म पर डिब्रूगढ़ की ओर जाने वाली गाड़ी आ गई थी. यहां से कोई नहीं चढ़ा. 15 मिनट बाद वह चली गई.

बच्चे टुनटुन और मुकुटनाथ के साथ मिल कर मशीन पर आनेजाने वालों को देख कर अपना मनोरंजन कर रहे थे. सामने से एक स्मार्ट युवक आ रहा था मशीन की ओर. नीति की धीमी आवाज में ‘रनिंग कमैंट्री’ शुरू हो गई. टुनटुन भी साथ दे रहा था.

‘‘हां तो दादा, बैग नीचे रखा?’’

‘‘हां, रखा.’’

‘‘मशीन पर चढ़ा?’’

‘‘हां जी, चढ़ गया.’’

‘‘चरखी रुकी?’’

‘‘बिलकुल नीति बेबी.’’

‘‘सिक्का डाला.’’

‘‘हां, डाल रहा है.’’

‘‘बस, अब यह फंसा…अब देखो क्या होता है?’’

टोकन न आने के कारण मशीन  पर चढ़ा युवक बेचैन हो रहा था. ऊपर खड़ेखड़े ही उस ने जोरों से लैफ्टराइट करना शुरू कर दिया कि शायद झटके से कहीं फंसा हुआ टोकन नीचे आ जाए.

कुछ समय बाद बेहद खीज गया वह और मशीन को दाएंबाएं ढोलक की तरह बजाने लगा. अचानक गश्त करते एक सिपाही को देख मशीन से उतर गया. ज्यों ही सिपाही आगे गया, एक भरपूर किक मशीन को रसीद कर दी उस ने. चारों ओर घूम के भी देखा, कहीं कोई साक्ष्य तो नहीं उस के शौर्य का. तुरंत हम ने मुंह घुमा लिए. हंसी से लोटपोट हुए जा रहे थे हम सभी. ऐसे ही कितने आए, कितने गए. मशीन सभी के सिक्के लीलती रही. किसी को कृतार्थ नहीं किया उस ने हंसतेहसंते समय कैसे निकल गया, पता ही नहीं चला. कहां थी मैं, इस अनजान सुनसान प्लेटफौर्म पर, रात के 11 बजे, अनजाने लोग अनजानी जगह. फिर भी घबराहट नहीं, कोई डर नहीं.

‘‘दीदीजी, आप की इंटरसिटी लग गई, देखिए,’’ टुनटुन ने कहा, ‘‘अब आप का सामान गाड़ी में रख देते हैं.’’

‘‘अरे, हम रख लेंगे, आप रहने दीजिए,’’ औपचारिकतावश मैं ने कहा.

बगल में मुकुटनाथ अपनी बोरी को खोल कर उस में से कुछ निकाल रहा था. मेरे पास आया और 2 खाकी भूरे से कागज के बडे़बड़े पैकेट मेरी ओर बढ़ाते हुए बोला, ‘‘दीदीजी, यह चायपत्ती है, जहां मैं काम करता हूं न उसी फैक्टरी की. आप को अच्छी लगेगी, ले लीजिए.’’

‘‘अरे नहींनहीं, मुझे नहीं चाहिए,’’ मैं ने पीछे होते हुए कहा.

‘‘ले लीजिए न, दीदीजी,’’ उस ने अनुनय की.

मैं अब मना नहीं कर सकी और पैसे निकालने के लिए पर्स खोलने लगी.

‘‘अरे दीदीजी, नहींनहीं,’’ हाथ जोड़ कर उस ने कहा, ‘‘अपनी दीदीजी से हम पैसा कैसे ले सकते हैं,’’ और तेजी से हमारा सामान उठा कर चल दिया.

टुनटुन और मुकुटनाथ दोनों ने हमारी  सीट के नीचे हमारा सारा सामान सैट कर दिया था. गाड़ी छूटने का समय हो चला था. टुनटुन नीचे उतरा और 2 मिनट बाद फिर हमारे पास आया. पानी की 2 बोतलें और बिस्कुट के पैकेट ले कर. नीति को थमाते हुए वह बोला, ‘‘रात को बच्चों को प्यास लगेगी, दीदीजी, और अब तो रात बहुत हो गई है, कोई पानी वाला, चाय वाला इस समय गाड़ी में नहीं मिलेगा.’’

‘‘ठीक है भैया, अब तुम लोग जाओ,’’ मैं ने कहा.

गाड़ी सरकने लगी थी. ‘नहींनहीं, अंकल’, सुन कर बच्चों की ओर देखा तो पाया मुकुटनाथ दोनों की हथेलियों पर 10-10 रुपए का नोट रख रहा था, ‘‘टौफी खाना, बाबू, ठीक है,’’ उन के सिरों पर हाथ रख कर वह जाने लगा.

‘‘अरे, यह क्या,’’ मैं कुछ और कहती इस से पहले वे नीचे उतर चुके थे.

दोनों बच्चे भावविभोर थे. उन 10-10 रुपए की ‘फेस वैल्यू’ चाहे जो भी हो, इस क्षण में वे नोट नीति व अवधेश के लिए अमूल्य थे. दोनों नीचे खड़े हुए बच्चों को हाथ हिला कर बाय कर रहे थे. ट्रेन धीरेधीरे आगे बढ़ रही थी. मैं ने पाया कि हाथ हिलातेहिलाते दूसरे हाथ से अपनी आंखें भी पोंछ रहे थे. ‘हैं, इतना स्नेह’ मैं विश्वास नहीं कर पा रही थी. अपने बच्चों की आंखों में भी उदासी साफ देख पा रही थी मैं. बात बदलने के उद्देश्य से बेटे से पूछा, ‘‘इन लोगों की ट्रेन कितने बजे की है, मैं ने तो पूछा भी नहीं?’’

भारी स्वर में अवधेश बोला, ‘‘मां, उन को तो डिब्रूगढ़ की ट्रेन पकड़नी थी जो हम से काफी पहले आ गई थी, लेकिन उन्होंने मिस कर दिया उसे.’’

मैं हैरान थी. ‘‘पर क्यों?’’

‘‘हमारे लिए मां. जब मैं फोन करने उन के साथ गया था तो उन्हें बताया था कि हम पहली बार यहां आए हैं. शायद उन्होंने भांप लिया था कि आप नई जगह पर अकेले घबरा रही हैं. मुकुटदादा ने बोला कि आप सब को ट्रेन में बिठा कर वे स्टेशन के बाहर से डिब्रूगढ़ की बस पकड़ लेंगे. सच, मां, यकीन नहीं होता, इतने अच्छे लोग भी होते हैं.’’

अवाक् थी मैं. आंखें धुंधला गईं. कब मैं उन की ‘दीदीजी’ बन गई थी, पता ही नहीं चला. कैसे बन गए थे वे मेरे आत्मीय, मेरे अपने से अजनबी.
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