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कोरोना संकट: जेठ की दुपहरी में तिरपाल के नीचे प्रवासी गर्भवती बहुएं और मासूम

गाजीपुर न्यूज़ टीम, बलिया. लॉकडाउन और कोरोना के बढ़ते संक्रमण की सबसे ज्यादा मार प्रवासी कामगारों और उनके परिवार पर पड़ रही है। प्रवासियों को खेतों में ठिकाना बनाकर रहना पड़ रहा है। यहां तक कि महानगरों से लौटीं बहुएं तपती दुपहरिया में खेत में तिरपाल डालकर रहने को मजबूर हैं। मासूम बच्चे भी उनके साथ बेचैन हैं। हिन्दुस्तान संवाददाता ने बलिया के बैरिया में बहुओं और बच्चों की पीड़ा को करीब से देखा। 

बलिया के बैरिया थाना क्षेत्र के चांदपुर निवासी नन्दकिशोर के दो बेटे पिंटू व काशीनाथ जोधपुर में स्टील कम्पनी में काम करते थे। दोनों साथ में ही रहते थे। लॉकडाउन में कंपनी बंद हुई और धीरे-धीरे राशन भी खत्म हो गया। जब ट्रेन चली तो गांव के लिए रवाना हुए। जोधपुर से गोरखपुर ट्रेन से उसके बाद बस से बलिया और फिर पैदल और अन्य साधनों से बैरिया पहुंचे। दोनों भाइयों के छह लोगों का परिवार जब घर पहुंचा तो क्वारंटीन होना पड़ा।

गांव में छोटा सा मकान है। जहां पहले से ही मां-बाप के साथ एक भाई का परिवार है। दोनों भाइयों, दोनों की पत्नी और दो बच्चे कहां रहते। ऐसे में वहां होम क्वारंटीन संभव नहीं था। आखिरकार जेठ की दोपहरी काटने को खेत में ही आश्रय लेना पड़ा। दोनों भाई बगल के गांव में स्थित एक खेत में तिरपाल डालकर परिवार समेत क्वारंटीन हो गए। 

पिंटू के एक साल की बेटी अनन्या है, पत्नी सीमा गर्भवती है। काशीनाथ के साथ दो साल का बेटा सोनू व पत्नी पूनम है। सीमा बताती हैं कि तिरपाल के सहारे जेठ की दोपहरी काटनी बहुत मुश्किल है। सांप-बिच्छू और जानवरों का डर भी बना रहता है। काशीनाथ की पत्नी पूनम कहती है दिन में तपती गरमी और रात में मच्छरों के कारण बच्चे सो नहीं पाते हैं। 

दोनों भाई कहते हैं, परिवार की सुरक्षा के लिए क्वारंटीन पूरा कर ही गांव जाएंगे।  कभी मां तो कभी पिताजी खाना लेकर आते हैं। खाना हमसे थोड़ी दूरी पर रख देते हैं। डिस्पोजल में ही हमलोग खाना खाते हैं। 

काशीनाथ बताते हैं कि सामने पोते को रोता देख मां के आंसू छलक जाते हैं। बच्चे भी दादी के गोद में जाने को बेचैन रहते हैं लेकिन लाचारी है, ऐसा नहीं कर सकते। कई बार मां भी कहती है मैं भी यही रहूंगी, फिर उसे भी समझाना पड़ता है। हम लोग परिवार और  गांव वालों के लिए मुसीबत नहीं बनना चाहते हैं, इसलिए गांव -घर पर नहीं गये।
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