आत्मबल और प्रेरणा के साथ सदवृत्तियों के शक्ति संचयन का भी आवाहन करती है विजयादशमी- महामंडलेश्वर
जखनियां। शक्ति यदि अनीति, अधर्म से संयुक्त हो, अमर्यादित और लोककल्याण हेतु न हो तो व्यर्थ होती है और निःशन्देह पराजित होती है। शक्तिशाली रावण का वध और सौरज धीरज जेहि रथ चाका-सत्यशील दृढ़ ध्वजा पताका, के विजय रथ पर रथारूढ़ श्रीराम की विजय से यही संकेत और निर्देश प्रतीक रूप में देती विजयादशमी मात्र धूमधाम और लोक उत्सव को ही नहीं अपितु आत्मबल और प्रेरणा के साथ सदवृत्तियों के शक्ति संचयन का भी आवाहन करती है। उक्त बातें विजयादशमी के अवसर पर शनिवार को शिष्य श्रद्धालुओं को सम्बोधित करते हुए महामंडलेश्वर स्वामी भवानीनन्दन यति जी महाराज ने कहा।
उन्होंने कहाकि शक्ति को मर्यादित रूप से प्रयोग करते हुए सत्य और धर्म के पथ पर अग्रसर व्यक्ति अवश्य ही विजयी होता है। अधर्म व अनीति में शक्ति प्रयोग कभी सफल नहीं हो सकता। यही संदेश देती विजयादशमी उत्सव स्वरूप में प्रतिवर्ष आनंद और पुनःस्मरण के भाव से रामलीलाओं और रावणदहन की पुनरावृत्ति करती आ रही है। श्रीराम का अनूठा आदर्श जन-जन को इससे प्रेरणा देता आया है। वस्तुतः प्रत्येक लोक पर्व अपने बाह्य परिदृश्य में जहाँ उमंग, उत्साह और आनंद मनाने की व्यक्ति की सामूहिकता की प्रवृत्ति से रंगबिरंगा दिखता है, वहीं मूल आंतरिक भाव-प्रेरणा-नव ऊर्जा तथा सद्प्रवृत्तियों को ग्रहण करने और पुष्ट करने में ही निहित रहता आया है। आदर्श प्रतीक के रूप में श्री राम विजयादशमी में जन-जन के आराध्य बनते हैं जैसे नवरात्रि में भगवती दुर्गा इसी प्रतीक शक्ति का केंद्र बन प्रत्येक को दिशा प्रदान करती हैं। रामचरित की महिमा का बखान तो तुलसी जी इसी संदर्भ में दे गए हैं-